शोधकर्ताओं को वैक्सीन उत्पादन के लिए बंदरों पर परीक्षण जल्द से जल्द समाप्त करना चाहिए!

Posted on by Anahita Grewal

24 अप्रैल को दुनियाभर की प्रयोगशालों में प्रयोग होने वाले जानवरों की द्वारा झेले जाने वाली गहन पीड़ा की याद में विश्व सप्ताह बनाया जाता है।

विज्ञान के नाम पर शोषित किए जाने वाले जानवरों में कुछ विशेष प्रजाति के बंदर शामिल हैं जिनका प्रयोग दवाओं और टीकों के निर्माण और इनके प्रशिक्षण के लिए किया जाता है। इस प्रथा के दौरान बंदरों को जंगल से पकड़ते समय अकेले फंसाया जाता है और फिर जाल और लाठी से भयभीत करके अपने हाथों से पकड़ा जाता है। इस हिंसक प्रक्रिया के दौरान कई जानवर घायल होते हैं या मौत के घाट उतार दिये जाते हैं। इसके बाद जो जानवर बच जाते हैं उन्हें बैग या पिंजरों में भरकर, दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में एक भयानक यात्रा पर ले जाया जाता है।

यहाँ पहुँचकर, इन अत्यधिक सामाजिक जानवरों को बंजर स्टील के पिंजरों में डाल दिया जाता है, जिसमें उनके पास बैठने, खड़े होने, लेटने या घूमने के लिए मुश्किल से पर्याप्त जगह होती है। इन प्रयोगशालाओं में जन्म लेने वाले शिशु बंदरों को उनकी चीखती-चिल्लाती मांओं से जबरन अलग कर दिया जाता है। इस कारण कई बंदर पागल हो जाते हैं और यहां तक ​​कि स्वयं को नुकसान पहुंचाना भी शुरू कर देते हैं। इन बेज़ुबान प्राणियों को कई यातनाओं का सामना करना पड़ता है, इनके पेट में प्रयोगात्मक दवाओं को पंप करने के लिए मोटी गैवेज ट्यूबों को उनके नथुने और/या उनके गले से नीचे डाला जाता है, इनके  दिमाग में इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं, इन्हें कई जहरीले रसायनों का सेवन कराया जाता है और नयी दवाइयों और टीकों का प्रयोग करने हेतु इन्हें जबरन गंभीर संक्रामकों से भी पीड़ित किया जाता है।

बंदरों पर किए जाने वाले इस गहन शोषण का प्रमुख लक्ष्य कथित तौर पर मानव रोगों का इलाज खोजना है, लेकिन इन उपचारों का दशकों से इंतजार होने के बावजूद कोई सकारात्मक नतीजे सामने नहीं आए हैं।

“बायोमेडिकल मॉडल” के रूप में बंदरों की उपयुक्तता की अत्यधिक आलोचना की गई है। इसका प्रमुख कारण यह है कि बंदरों एवं मनुष्यों की शारीरिक, आनुवंशिक एवं मानसिक बनावट में बड़ा अंतर हैं जिसके चलते जानवरों पर परीक्षित दवाइयाँ और विशेषतः टीके मनुष्यों पर कारगर नहीं होती हैं। 1940 के दशक में, पश्चिमी प्रयोगकर्ताओं ने भारत सरकार को बताया कि पोलियो वैक्सीन के निर्माण हेतु “रीसस मकाक” की आवश्यकता हैं लेकिन वास्तव में, मैकाक के उपयोग ने पोलियो वैक्सीन के विकास को और धीमा कर दिया और इसके चलते एक अनपेक्षित बंदर वायरस का भी जन्म हुआ। अनगिनत बार, अनुसंधान समुदाय ने दावा किया है कि मलेरिया, टी.बी. , या HIV की वैक्सीन के निर्माण हेतु बंदरों पर परीक्षण महत्वपूर्ण है लेकिन यह सभी वैक्सीन मनुष्यों पर असफ़ल रही और एक केस में इसके कारण संक्रमण के ख़तरे में और भी बढ़ोतरी देखी गई।

एक और हालिया उदाहरण में, Pfizer, Moderna, और Johnson & Johnson ने प्रारंभिक स्तर पर ही यह जान लिया कि SARS-CoV-2, COVID-19 महामारी का असर जानवरों पर नहीं पड़ता है और जानवरों में इसका कारण अलग है। इसके चलते बंदरों पर किए गए परीक्षणों के परिणाम मनुष्यों के लिए भ्रामक होते हैं।

दवाओं और टीकों के अनुमोदन के लिए जिम्मेदार प्राधिकरण “सेंट्रल ड्रग्स स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन” (CDSCO), और दुनिया भर के अन्य अधिकारियों ने भी COVID-19 के लिए उपचारों के विकास में बंदरों सहित अन्य जानवरों पर विषाक्तता परीक्षण की आवश्यकताओं को कम कर दिया है। अगर CDSCO द्वारा COVID-19 वैक्सीन (कोवैक्सिन) के विकास के दौरान, अनुमोदन की आम प्रक्रिया का पालन किया जाता, तो हम इस वैक्सीन के लिए एक दशक या उससे अधिक समय तक इंतजार कर रहे होते।

वैश्विक COVID-19 महामारी ने खुलासा किया है कि बंदरों को मानव रोगों के मॉडल के रूप में उपयोग करना कितना अविश्वसनीय और अनावश्यक है। इसके चलते हमारे सामने एक प्रश्न खड़ा होता है कि हम क्या अलग कर सकते हैं? अगर इसका जवाब “हाँ” है तो, इसका व्यापक वर्णन PETA की “रिसर्च मॉडर्नाइजेशन डील” में प्रस्तुत किया गया है। इसके अंतर्गत इलाज़ हेतु अनुसंधान में निवेश को अनुकूलित करने के लिए एक रोडमैप और रणनीति की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी है जिसके लिए जानवरों पर किसी प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है।

रिसर्च मॉडर्नाइजेशन डील

प्रतिवर्ष प्रयोगों के दौरान कई बंदरों, कुत्तों, चूहों व अन्य जानवरों को प्रयोगशालाओं में अंधा कर दिया जाता है, जला दिया जाता है, खुले वातावरण में उनके अंग विच्छेदित कर दिये जाते है, उनको जहर दिया जाता है और अनेकों नशीले पदार्थ खिलाये जाते हैं। यह सभी परीक्षण ना केवल क्रूर हैं बल्कि इंसान एवं जानवरों की शारीरिक बनावट अलग होने के कारण इन परीक्षणों के परिणाम मनुष्यों के लिए अनुपयुक्त भी हैं। जानवरों पर परीक्षण करने के विपरीत परीक्षण की आधुनिक तकनीकें जैसे ‘इन विट्रो’ और ‘सिलिकों’ ज्यादा विश्वसनीय हैं, मानव के संबंध में अधिक प्रभावी परिणाम बताती हैं और जानवरों पर परीक्षण करने के मुक़ाबले अधिक किफ़ायती भी हैं।

बंदरों पर किसी प्रकार का परीक्षण किए बिना उन्हें अपने प्राकृतिक आवास में आज़ाद जीवन जीने की आज़ादी मिलनी चाहिए

 

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