बड़ी जीत! PETA इंडिया की अपील के बाद, मोरीगांव में बैलों की अवैध लड़ाई पर रोक लगाई गयी
PETA इंडिया की असम के पुलिस महानिदेशक और जिला प्रशासन तथा मोरीगांव के पुलिस अधीक्षक से की गई अपील के बाद, 17 अप्रैल को मोरीगांव जिले के मायोंग उपखंड के कटहजारी पथार गांव में होने वाली बैलों की अवैध लड़ाई के आयोजन पर रोक लगाई गयी।
गौहाटी उच्च न्यायालय द्वारा PETA इंडिया की याचिका के जवाब में, असम राज्य में किसी भी तरह की बैल की लड़ाई (मोह-जूज) को रोकने का निर्देश दिया गया। अपने आदेश में माननीय न्यायमूर्ति मनीष चौधरी ने उल्लेखित किया कि 25 जनवरी 2024 के बाद असम में आयोजित कोई भी बैल की लड़ाई प्रथम दृष्टया अवैध है, क्योंकि वे असम सरकार द्वारा मोह-जुज के संबंध में जारी मानक संचालन प्रक्रियाओं (SOP) के अंतर्गत दी गयी समय सीमा का स्पष्ट उल्लंघन हैं। अपनी अपील में PETA इंडिया द्वारा उल्लेखित किया गया कि इस प्रकार की क्रूर लड़ाई का आयोजन माननीय गुवाहाटी उच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन एवं इसलिए इस पर रोक लगाना अनिवार्य है।
हाल ही में, PETA इंडिया की शिकायतों के बाद, असम के नागांव जिले के राहा कोरोइगुड़ी और कासोमारी में आयोजित बैलों की अवैध लड़ाई के दौरान बैलों के खिलाफ होने वाली क्रूरता के जघन्य कृत्यों के जवाब में राहा पुलिस और नागांव सदर पुलिस द्वारा दो FIR दर्ज की गईं हैं। इस आयोजन का वीडियो यूट्यूब पर भी अपलोड किया गया था। इन संबंध में, आयोजकों, प्रतिभागियों और पशु मालिकों के खिलाफ बैलों की अवैध लड़ाइयों का आयोजन एवं संचालन करने, बैलों को पीटकर उनके साथ अत्यधिक क्रूरता करने और बैलों के सींग खींचकर उन्हें उत्तेजित करने एवं मानव जीवन को खतरे में डालने हेतु FIR दर्ज की गई है।
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असम सरकार के बैल की लड़ाई को अनुमति प्रदान करने के निर्णय के बाद, PETA इंडिया ने गौहाटी उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर, इस प्रकार की क्रूर लड़ाइयों को फिर से प्रतिबंधित करने का अनुरोध किया है। मामले से संबंधित साक्ष्य के रूप में, PETA इंडिया ने इन लड़ाइयों की एक जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करी, जिससे पता चला कि इन लड़ाइयों के लिए डरे हुए एवं गंभीर रूप से घायल बैलों को लड़ने के लिए मजबूर किया जाता है।
16 जनवरी को असम के मोरीगांव जिले के अहातगुरी में हुई बैलों की लड़ाई की जांच से पता चला कि बैलों को लड़ने के लिए उकसाने हेतु, इनके मालिकों ने इन्हें बहुत मारा-पीटा, लाठी चुभाई, और इनकी नाक की रस्सी को बड़ी ही बेरहमी से खींचा गया, जिससे इनकी नथुनी फट गयी और उससे खून बहने लगा। यहाँ तक कि लड़ाई के दौरान भी कुछ मालिकों और संचालकों ने बैलों को और अधिक परेशान करने के लिए उन्हें लकड़ी के डंडों से मारा और नंगे हाथों से पीटा। इन सब से उत्तेजित होकर, बैलों ने अपने-अपने सींग आपस में फंसा लिए और लड़ने लगे जिससे उनकी गर्दन, कान, चेहरे और माथे पर बहुत से खूनी घाव हो गए एवं कई बैलों के पूरे शरीर पर चोटें आईं। यह लड़ाई तब तक जारी रही जब तक कि दो बैलों में से कोई एक अपनी हिम्मत पूरी तरह से हार न गया।
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15 जनवरी को असम के हाजो में आयोजित बुलबुल की लड़ाई की जांच रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित पक्षी रेड-वेंटेड बुलबुल को जबरन कैद करके और भोजन का लालच देकर अवैध रूप से लड़ने के लिए उकसाया गया जो कि उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति के बिल्कुल खिलाफ़ है। रिपोर्ट में उल्लेखित किया गया है कि इन पक्षियों को लड़ाई से कई दिन पहले ही जबरन कैद कर लिया जाता है जबकि संरक्षित जंगली पक्षियों को पकड़ना इनके शिकार का ही एक रूप माना जाता है जो कि पूर्णत अवैध है।
कथित तौर पर, पक्षियों को उत्तेजित करने के लिए उन्हें आमतौर पर भांग का नशा दिया जाता है और अन्य नशीली जड़ी-बूटियाँ, केले, काली मिर्च, लौंग और दालचीनी खिलाई जाती हैं, फिर लड़ाई से पहले उन्हें कम से कम एक रात के लिए भूखा रखा जाता है। लड़ाई के दौरान, भूखे पक्षियों के सामने केले का एक टुकड़ा लटका दिया जाता है, जो उन्हें एक-दूसरे पर हमला करने के लिए उकसाता है। प्रत्येक लड़ाई लगभग पांच से 10 मिनट तक चली, और संचालकों ने थके हुए पक्षियों पर बार-बार हवा मारकर उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए मजबूर किया।
PETA इंडिया द्वारा उच्च न्यायालय में दर्ज़ याचिका में उल्लेखित किया गया है कि बैल और बुलबुल की लड़ाई भारतीय संविधान के साथ-साथ, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960; और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराजा के फैसले का भी स्पष्ट उल्लंघन है। PETA इंडिया यह भी उल्लेखित करता है कि इस तरह की लड़ाइयाँ स्वाभाविक रूप से क्रूर होती हैं और इसमें भाग लेने के लिए मजबूर जानवरों को अथाह दर्द और पीड़ा का सामना करना पड़ता है। यह लड़ाइयाँ अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों का खंडन करती हैं, जो भारतीय संस्कृति और परंपरा का अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार के आयोजनों को जारी रखना एक प्रतिगामी कदम है जो मानव और पशु अधिकारों में लगभग एक दशक की प्रगति को नष्ट कर देगा।