PETA इंडिया ने गौहाटी उच्च न्यायालय से बुलबुल की लड़ाई पर प्रतिबंध लगाने की गुहार लगाई
असम सरकार के बुलबुल नामक पक्षियों की लड़ाई को अनुमति प्रदान करने के निर्णय के बाद, PETA इंडिया ने गौहाटी उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर, इस प्रकार की क्रूर लड़ाइयों को फिर से प्रतिबंधित करने का अनुरोध किया है। मामले से संबंधित साक्ष्य के रूप में, PETA इंडिया ने इन लड़ाइयों की एक जांच रिपोर्ट प्रस्तुत करी, जिससे पता चला कि इन लड़ाइयों के लिए भूख एवं नशे में धुत बुलबुल को भोजन का लालच देकर लड़ने के लिए मजबूर किया जाता है। PETA इंडिया की याचिका में इन आयोजनों के संचालन में केंद्रीय कानून के कई उल्लंघनों का हवाला दिया गया है। PETA इंडिया द्वारा गौहाटी उच्च न्यायालय से मामले की सुनवाई के दौरान, बैल और बुलबुल की लड़ाई पर अंतरिम रोक लगाने की मांग भी करी गयी है।
15 जनवरी को असम के हाजो में आयोजित बुलबुल की लड़ाई की जांच रिपोर्ट से खुलासा हुआ कि वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 की अनुसूची II के तहत संरक्षित पक्षी रेड-वेंटेड बुलबुल को जबरन कैद करके और भोजन का लालच देकर अवैध रूप से लड़ने के लिए उकसाया गया जो कि उनकी प्राकृतिक प्रवृत्ति के बिल्कुल खिलाफ़ है।
रिपोर्ट में उल्लेखित किया गया है कि इन पक्षियों को लड़ाई से कई दिन पहले ही जबरन कैद कर लिया जाता है जबकि संरक्षित जंगली पक्षियों को पकड़ना इनके शिकार का ही एक रूप माना जाता है जो कि पूर्णत अवैध है।
कथित तौर पर, पक्षियों को उत्तेजित करने के लिए उन्हें आमतौर पर भांग का नशा दिया जाता है और अन्य नशीली जड़ी-बूटियाँ, केले, काली मिर्च, लौंग और दालचीनी खिलाई जाती हैं, फिर लड़ाई से पहले उन्हें कम से कम एक रात के लिए भूखा रखा जाता है। लड़ाई के दौरान, भूखे पक्षियों के सामने केले का एक टुकड़ा लटका दिया जाता है, जो उन्हें एक-दूसरे पर हमला करने के लिए उकसाता है। प्रत्येक लड़ाई लगभग पांच से 10 मिनट तक चली, और संचालकों ने थके हुए पक्षियों पर बार-बार हवा मारकर उन्हें लड़ाई जारी रखने के लिए मजबूर किया।
PETA इंडिया द्वारा उच्च न्यायालय में दर्ज़ याचिका में उल्लेखित किया गया है कि बैल और बुलबुल की लड़ाई भारतीय संविधान के साथ-साथ, पशु क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960; और माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय जीव-जन्तु कल्याण बोर्ड बनाम ए नागराजा के फैसले का भी स्पष्ट उल्लंघन है। PETA इंडिया यह भी उल्लेखित करता है कि इस तरह की लड़ाइयाँ स्वाभाविक रूप से क्रूर होती हैं और इसमें भाग लेने के लिए मजबूर जानवरों को अथाह दर्द और पीड़ा का सामना करना पड़ता है। यह लड़ाइयाँ अहिंसा और करुणा के सिद्धांतों का खंडन करती हैं, जो भारतीय संस्कृति और परंपरा का अभिन्न अंग हैं। इस प्रकार के आयोजनों को जारी रखना एक प्रतिगामी कदम है जो मानव और पशु अधिकारों में लगभग एक दशक की प्रगति को नष्ट कर देगा।