कोका-कोला के शेयरधारकों की मांग: भारत के बैलों पर अत्याचार रोकने और श्रमिकों की भलाई के लिए “बैल-मुक्त” चीनी अपनाई जाए

Posted on by Erika Goyal

“कोका-कोला आखिर कब अपनी खेती संबंधी जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाएगा और ‘बुल ज़ीरो’ यानी बैल-मुक्त चीनी को अपनाने का संकल्प लेगा?” यह सवाल PETA की संस्थापक इंग्रिड न्यूकिर्क ने कंपनी की हाल ही में हुई वार्षिक बैठक के दौरान उठाया।

लंबे समय से कोका-कोला की शेयरधारक रहीं न्यूकिर्क ने महाराष्ट्र के गन्ना उद्योग में बैलों की दुर्दशा को नज़दीक से देखा है—जहां टनों गन्ने से लदी गाड़ियों को बैलों से खिंचवाया जाता है। ये बैल अक्सर लड़खड़ाते हैं, गिरते हैं और अत्यधिक गर्मी में बिना पानी या आराम के लगातार पीटे जाते हैं ताकि वे चलते रहें। स्थानीय संस्था ‘एनिमल राहत’ ने ऐसे हज़ारों यातनात्मक उपकरण जब्त किए हैं, जिनसे बैलों को दर्द पहुंचाकर नियंत्रित किया जाता है। इसके बावजूद, पुलिस की कार्रवाई इस अमानवीय प्रथा को रोकने में अब तक विफल रही है। न्यूकिर्क का कहना है कि यह न सिर्फ पशुओं के लिए बेहद क्रूर है, बल्कि श्रमिकों के लिए भी नुकसानदेह है। बैलगाड़ियों पर निर्भर इस धीमी और अव्यवहारिक व्यवस्था के कारण गन्ना श्रमिकों को विकास और आर्थिक स्वतंत्रता से दूर रखा जाता है। न्यूकिर्क की मांग है कि कोका-कोला को अपनी सप्लाई चेन की समीक्षा कर, आधुनिक और मानवीय विकल्पों को अपनाना चाहिए—जिससे न केवल बैलों को राहत मिलेगी बल्कि श्रमिकों का जीवन भी बेहतर हो सकेगा।

PETA की वैश्विक संस्थापक इंग्रिड न्यूकिर्क कहती हैं, “बैल कोई संवेदनाहीन मशीन नहीं हैं, और कोका-कोला के पास यह ताकत है कि वह अपनी सॉफ्ट ड्रिंक्स को मीठा करने के लिए इन मासूम प्राणियों को पीड़ा सहने और मरते दम तक काम करने से रोक सके। PETA कोका-कोला से अपील करता है कि वह बैलों और श्रमिकों दोनों की भलाई के लिए पूरी सप्लाई चेन में यांत्रिकीकरण (mechanisation) को अपनाने की प्रतिबद्धता जताए — जिसका अर्थ होगा सिर्फ बैल-मुक्त चीनी का उपयोग।”

बैल बेहद संवेदनशील और सामाजिक प्राणी होते हैं, जिन्हें अगर आज़ादी से जीने दिया जाए, तो वे अपने झुंड के साथ गहरे, भरोसेमंद और प्यारभरे रिश्ते बना सकते हैं। लेकिन महाराष्ट्र की गन्ना इंडस्ट्री में इन मासूम प्राणियों को इंसानों की मिठास के लिए दिन-रात बेहद भारी गाड़ियां खींचने के लिए मजबूर किया जाता है। यह क्रूर श्रम उनके शरीर को धीरे-धीरे तोड़ देता है। उनके जोड़ सूज जाते हैं, मांसपेशियां फट जाती हैं, शरीर पर फोड़े उभर आते हैं और उनका हर कदम पीड़ा से भरा होता है। कई बैल तो सिर्फ इसलिए गंभीर घाव झेलते हैं क्योंकि उन्होंने ज़रा सा सिर घुमा लिया। कांटेदार तारों से बने क्रूर उपकरण उनके चेहरे में बेरहमी से चुभा दिए जाते हैं ताकि वे पूरी तरह नियंत्रण में रहें। उनकी नथुनों में डाली गई मोटी रस्सियाँ इतनी कसती हैं कि उनकी त्वचा फट जाती है और हर सांस में तकलीफ़ घुल जाती है।

PETA की मदद से, एनिमल राहत वर्ष 2011 से महाराष्ट्र की गन्ना इंडस्ट्री में बैलगाड़ियों की जगह अधिक कुशल और किफायती यंत्रीकृत विकल्पों को बढ़ावा देने के लिए ‘गन्ना उद्योग यांत्रिकीकरण परियोजना’ के तहत कार्य कर रहा है। इस परियोजना के प्रभाव से अब तक महाराष्ट्र राज्य का लगभग एक-तिहाई गन्ना उत्पादन यंत्रीकृत हो चुका है। एक ट्रैक्टर, जो एक बार में 8 से 18 टन तक गन्ना ढो सकता है, कई बैलों की जगह ले सकता है और इससे मालिकों की आमदनी के अवसर भी बेहतर होते हैं। इसके बावजूद, कोका-कोला से अब तक कोई जवाब नहीं आया है, जबकि उससे यह अपेक्षा की गई थी कि वह अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस क्रूरता को कम करने में योगदान देगा और भारत के बैलों व श्रमिकों की मदद करेगा।

इंग्रिड न्यूकिर्क ने जो सवाल शेयरधारक के तौर पर पूछा, वह पूरा नीचे है।

मेरा नाम इंग्रिड न्यूकिर्क है, मैं PETA की अध्यक्ष और कोका-कोला की लंबे समय से शेयरधारक हूं। न्यू यॉर्क टाइम्स ने यह उजागर किया है कि हमारी कंपनी कोका-कोला का भारत की क्रूर गन्ना इंडस्ट्री से गहरा संबंध है, जहां बेहद गरीब प्रवासी मज़दूरों के परिवारों का शोषण किया जाता है। ये परिवार बैलों पर निर्भर हैं, जो गन्ना फैक्ट्रियों तक माल ढोने का काम करते हैं। ये बैल अवैध रूप से ओवरलोडेड गाड़ियों को खींचते हैं और इस दौरान लंगड़ापन, दर्दनाक फोड़े और मांसपेशियों के फटने जैसी गंभीर तकलीफ़ें सहते हैं। जब वे थककर रुकने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें डंडों और कोड़ों से पीटा जाता है ताकि वे चलते रहें। उनके कंधे पर बंधी पट्टियों में लगे कांटेदार तार उनके चेहरे में गहरे घाव कर देते हैं, और मोटी रस्सियों से बंधी नथुनों की खाल तक फट जाती है। इन्हें सचमुच मौत तक काम करने पर मजबूर किया जाता है। कोका-कोला चाहे तो सिर्फ बैल-मुक्त चीनी का इस्तेमाल करके इन बैलों और श्रमिक परिवारों के लिए सही कदम उठा सकती है। PETA के समर्थन से शुरू की गई एक परियोजना में बैलों की जगह ईको-ट्रैक्टर लाए गए हैं, जिससे एक गन्ना उत्पादन ज़िले में एक-तिहाई बैलों को इस जीवनभर की पीड़ा से मुक्ति मिली है और साथ ही मज़दूरों की आमदनी भी बढ़ी है।

तो फिर सवाल यह है: कोका-कोला कब अपनी सतत कृषि नीतियों को सच्चे अर्थों में अपनाएगा और बैल-मुक्त चीनी को लेकर प्रतिबद्धता दिखाएगा?

 

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